Tuesday, February 26, 2013

दीया बूझा पड़ा है..


लौ बुझी बुझी सी लगती है,
अँधेरे से घुप्प घर काटने को है दौड़ता,
ना जाने कहाँ,
रख कर भूल गई हो,
वो दीया ,
चिराग वो आज बुझा पड़ा है,
आकर जरा उसे जला दो,
नजर-ए-करम इस बार अपना कर जाओ,
एक बार फिर वो दीया जला जाओ।

    याद है वो दिन,
जब इन्ही कोमल हाथों से,
धोकर जब उस दीये  को,
बनाकर रुई की बत्ती,
भर देती थी तेल सरसों का,
घर के आंगन में,
तुम रख दिया करती थी जलाकर उसको,
घर की एक नुकड़ में आज वो दबका पड़ा है,

नजर-ए-करम इस बार अपना कर जाओ,
एक बार फिर वो दीया जला जाओ।

खिलते थे फूल आँगन में पहले,
फैलती थी जब उनकी खुशबू,
चाँद भी तब निकलता था पूरा,
आई अमावस अबकी बार छटती नही,
फूलों ने भी दिया है छोड़ महकाना,
आँगन की चौन्खट पर पसरा है अब अँधेरा,
कतरा सी रौशनी को तरसा है आज वो,

नजर-ए-करम इस बार अपना कर जाओ,
एक बार फिर वो दीया जला जाओ।


वो भी तो दिन थे,
जला जब तुम दर्जनों दीए,
कर देती थी चौन्खट को रोशन,
आज फिर डूब,
किस मायूसी में,
रौशनी की महक गई हो भूल बिखेरना,
नजर-ए-करम इस बार अपना कर जाओ,
एक बार फिर वो दीया जला जाओ।

     

हुई अँधेरे में जो आज आहट,
चौंकाती नही क्यों तुझे वो,
रातों में पसरी गम की नीदें,
सताती नही क्यों तुझे वो,
चिराग की लौ,
आज भी है निकली पड़ी वैसी की वैसी,
नजर-ए-करम इस बार अपना कर जाओ,
एक बार फिर वो दीया जला जाओ।


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